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समाज

अफसरशाही पर भड़के गडकरी लेकिन समाधान क्या है?

शिवप्रसाद जोशी
३० अक्टूबर २०२०

नालायक, निकम्मे और भ्रष्ट हैं अफसर - कहना है केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी का. अफसरशाही के उदासीन रवैये से जब उनके जैसा मंत्री आहत हैं, तो आम जनता का हाल क्या होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं!

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Indien | Politiker Nitin Jairam Gadkari
तस्वीर: IANS

केंद्रीय सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का गुस्सा तब फूट पड़ा जब वे पिछले दिनों राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की दिल्ली स्थित इमारत का उद्घाटन करने गए थे. इस इमारत को पूरा होने में 11 साल लग गए. केंद्र सरकार में संभवतः वे अकेले मंत्री होंगे जो सरकारी कामकाज और अफसरों के रवैये को लेकर अपनी बेलाग टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं और बाज मौकों पर कथित ढिलाई के लिए अफसरों को खरीखोटी सुनाने से नहीं चूकते हैं.

इसी साल जनवरी में नागपुर के एक कार्यक्रम के दौरान समाचार एजेंसी एएनआई के एक वीडियो में गडकरी यह कहते हुए सुने जा सकते हैं, "मैं आपको सच बताता हूं, पैसे की कोई कमी नहीं है. जो कुछ कमी है वह सरकार में काम करने वाली जो मानसिकता है, जो नेगेटिव एटीट्यूड है, निर्णय करने में जो हिम्मत चाहिए, वो नहीं है.." जब उन जैसा कद्दावर और वरिष्ठ मंत्री अफसरों से खीझा हुआ हो सकता है, तो आम नागरिकों की व्यथा और आक्रोश का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है, जो आए दिन इस अफसरशाही के दुष्चक्र में घिरा हुआ खुद को पाते हैं और नौकरी, पेंशन से लेकर लोन या बीमा रकम हासिल करने जैसी जरूरतों के लिए चपरासी, बाबू, सेक्शन ऑफीसर और बड़े साहबों से ठुंसी हुई अफसरशाही के गलियारों में यहां से वहां भटकते रहने को विवश होते हैं.

हमें क्या पता किसने बनाया आरोग्य सेतु ऐप

अफसरशाही की ढिलाई को लेकर कोई सा भी विभाग उठाकर देख लीजिए, धूल का गुबार न मिले, यह हो ही नहीं सकता. सबसे ताजा उदाहरणों में एक आरोग्य सेतु ऐप का है, जिसे लेकर विभागों के बीच "हमें नहीं पता" वाला रवैया देखने में आया. इसका पता केंद्रीय सूचना आयोग की एक जवाबतलबी में चला. आयोग ने पूछा कि किस विभाग ने यह ऐप बनाया है, सभी संबद्ध शीर्ष विभाग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे! थोड़ी फजीहत के बाद केंद्र का एक गोलमोल सा बयान जरूर आ गया. करोड़ो लोगों के निजी डाटा का संग्रह एक ऐप के जरिए हो चुका है और सरकार के अधिकारी नहीं जानते कि वह ऐप है किसका?!

एक आम धारणा यह बन गई है कि हर साल 800-900 अफसरों की खेप देने वाली सिविल सेवा भ्रष्टाचार और राजनीतिकीकरण मे धंसी है. वैसे, आंकड़े भी कमोबेश उसी ओर इशारा करते हैं. विश्व बैंक के बनाए सरकार की कार्यकुशलता और प्रभाविता वाले 2014 के सूचकांक में भारत को 100 में से 45 अंक मिले, 1996 में जबकि यह करीब दस फीसदी ज्यादा थे, जब विश्व बैंक ने पहली बार इस तरह का डाटा जुटाना शुरू किया था. सरकार की प्रभाविता में सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता, सिविल सेवा की गुणवत्ता और राजनीतिक दबावों से उसकी स्वतंत्रता का स्तर, नीति निर्धारण और नीति क्रियान्वयन की गुणवत्ता, और ऐसी नीतियों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की विश्वसनीयता को आंका जाता है. 300 से अधिक विकास सूचकांकों के आधार पर तैयार आधिकारिक डाटा का संग्रहण करने वाली ‘द ग्लोबल इकोनमी डॉट कॉम' वेबसाइट के मुताबिक भारत, सरकार की प्रभाविता के सूचकांक पर 2019 की सूची में 0.17 अंकों के साथ, 193 देशों में से भारत 74वें नंबर पर है. 2018 में उसके 0.28 अंक थे. 

सिखाई जाती है बाबू मानसिकता

नवनियुक्त आईएएस अफसरों की ट्रेनिंग कुदरती सौंदर्य से भरपूर मसूरी स्थित भव्य लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी में होती है लेकिन घिरी हुई यह लगती है उसी पेचीदा, उबाऊ, जी मंत्रीजी वाली संरचना से, जो यहां आने वाले प्रशिक्षुओं को अपने आगामी जीवन में यूं भी इफरात में मिलने वाली होती है. क्या ऐसी कोई गतिविधि वहां नहीं होनी चाहिए जिससे यह पता चले कि प्रशिक्षु आईएएस जीवन और समाज में अंतरंग किसी जीवंत अभ्यास में रखे गए हों. एक कन्डिशनिंग मानो हो जाती है कि और एक बाबू मानसिकता बनने लगती है, प्रशिक्षण मानो यथास्थिति को सीखने का दिया जा रहा हो.

राजनीतिक दखल की संस्कृति ने नौकरशाही की गुणवत्ता को प्रभावित किया है. 2010 में सिविल सेवा अधिकारियों पर हुए एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ 24 फीसदी अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग मेरिट के आधार पर होती है. हर दो में से एक अधिकारी का मानना है कि बाहरी दखल एक प्रमुख समस्या है. कम अवधि की नियुक्तियां भी एक समस्या है, तबादले तो चुटकियों का खेल बन जाते हैं. अधिकारी ताश के पत्तों की तरह फेंट दिए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि काम करने की स्पेस नहीं है या काम करने वाले अधिकारी नहीं है. वे हैं, उनकी संख्या कम है, वे उदाहरण बनते भी हैं और बनाते भी हैं. सवाल यही है कि ऐसे अधिकारियों से कौन कितना प्रेरित होता है.

नेता-मंत्री-अफसर गठजोड़ क्या चाहता है?

प्रमोशन हो या तबादले - कहने को एक व्यवस्था है, एक चरणबद्ध और सूक्ष्म प्रक्रिया है, वरिष्ठ अधिकारियों का पैनल और सिफारिशें आदि हैं, लेकिन वास्तविकता में होता क्या है? इन तमाम प्रक्रियाओं और निर्देशों की आड़ में होता वही है जो नेता-मंत्री-अफसर गठजोड़ चाहता है. इस गठजोड़ में आप इस सिस्टम से बाहर सक्रिय कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल जैसे दबाव समूहों को भी जोड़ लीजिए. एक अदृश्य और समांतर मशीनरी सक्रिय रहती है, जो नौकरशाही की चक्की को अपने हिसाब से चलाती रहती है. ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई. इसके लिए 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था. इसी आयोग ने पहलेपहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी. लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग 2005 में जाकर बना. लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया. न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है.

प्रशासनिक सुधार लागू किए बिना हालात नहीं बदलेंगे. देखा गया है कि सार्वजनिक सेवाओं से जुड़े कार्यों में प्रशासनिक मंजूरियों की तेजी नदारद दिखती है. चाहे वो रोजगार उत्पादन की बात हो या किसान को उसकी पैदावार का उचित मूल्य दिलाने की बात या किसी गरीब और पीड़ित को उसका वाजिब हक दिलाने का दायित्व - जाहिर है जवाबदेही अफसरशाही को नियंत्रित करने वाली और उसे आदेश देने वाली सत्ता राजनीति पर भी आती है. प्रशासनिक तंत्र का सुदृढ़ होना ही नहीं, उसका सजग, मानवीय और तत्पर होना भी निहायत जरूरी है और उतना ही जरूरी है राजनीतिक तंत्र का भी जनता के प्रति समानुभूतिपूर्ण व्यवहार.

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