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कश्मीरः समाधान की धूमिल संभावनाएं

सत्येंद्र रंजन१९ जुलाई २०१६

कश्मीर प्रश्न जब शुरू में आकार ले रहा था उस दौर के नेताओं को शायद आशंका ना रही हो कि यह इतना उलझ जाएगा. समाधान की संभावनाएं एकदम धूमिल हैं.

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Indischer Soldat in Kaschmir 02.08.2014
तस्वीर: Rouf Bhat/AFP/Getty Images

बुरहान वानी के मारे जाने से पहले उनके पिता मुजफ्फर वानी ने अंग्रेजी अखबार द हिंदुस्तान टाइम्स को एक इंटरव्यू दिया था. बुरहान वानी को कश्मीर में नए दौर के अलगाववाद और उग्रवाद का प्रतीक बताया गया है. उसके पिता ने बुरहान की सोच और रूझानों को पूरी स्पष्टता के साथ सामने रखा. इससे साफ है कि बुरहान वानी कट्टरपंथी इस्लाम के तहत जिहाद की जो समझ है, उससे प्रेरित था. उसके पिता के मन में भी इसको लेकर कोई दुविधा नहीं थी. उन्हें मालूम था कि उनके बेटे की जिंदगी थोड़े दिनों की है. मगर उनकी दृष्टि में इन्सान सबसे पहले अल्लाह, फिर पैगंबर, फिर कुरआन (मजहब) की और सबसे आखिर में अपने माता-पिता की संतान होता है. जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें नहीं लगता कि भारतीय फौज को हराना बहुत मुश्किल है, तो उन्होंने कहा कि हां, बहुत मुश्किल है. मगर उसके बाद जोड़ा कि इस्लाम में मान्यता है कि जो जुल्म-सितम से लड़ते हुए अपनी जान देता है, वह मरता नहीं है. बल्कि वो इस दुनिया से उस दुनिया में ट्रांसफर होता है- अल्लाह के पास जाता है.

बुरहान के बारे में सामने आई जानकारियों के मुताबिक उसका परिवार जमात-ए-इस्लामी से हमदर्दी रखता था. बचपन में नयबग स्थित 'दरासगाह' (मदरसे) में उसने शिक्षा पाई (इसे जमात के समर्थक ही चलाते हैं). वह जमात की सभाओं में जाता था. एक मुठभेड़ में उसके भाई की मौत हो गई. इसके बाद उसने उग्रवाद की राह पकड़ी. वह हिजबुल मुजाहिदीन में शामिल हुआ. 1980 के दशक के आखिर में जब कश्मीर में अलगाववाद का उग्र दौर शुरू हुआ, तब उसकी ज्यादातर कमान हिजबुल के हाथ में ही थी. मगर तब कश्मीर में “आजादी” की मांग उठाने वालों की एक और धारा मौजूद थी. यह धारा अपने संघर्ष का आधार कश्मीरियत मानती थी, उसका रूझान धर्म-निरपेक्ष था और वह कश्मीर को भारत और पाकिस्तान दोनों से अलग एक स्वतंत्र देश बनाने की मांग करती थी, जबकि हिजबुल आरंभ से कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का पक्षधर है. उस दूसरी धारा का नेतृत्व जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के हाथ में था. पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर में भी जेकेएलएफ की शाखा थी, जिसका नेतृत्व अमानुल्लाह खान के हाथ में था.

पाकिस्तान ने हमेशा नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ जेकेएलएफ को कमजोर करने की कोशिश की. पहले उसका हाथ हिजबुल की पीठ पर था. लेकिन बाद के दिनों में उसने लश्कर-ए-तैयबा जैसे उन संगठनों की मदद की, जिनके अड्डे उसकी जमीन पर थे. जाहिर है, ये सभी इस्लामी गुट थे, जो कश्मीर की लड़ाई को उस कथित बड़े जिहाद का हिस्सा मानते थे, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इस्लामी राज कायम करने के लिए चलती रही है. तमाम संकेत बताते हैं कि जेकेएलएफ आज हाशिये पर है.

कश्मीर समस्या के हल पर विचार करते समय इस पृष्ठभूमि को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि पाकिस्तान का निर्माण इस्लामी देश के रूप में हुआ. कश्मीर पर उसके दावे का एकमात्र आधार यही था कि वहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं जबकि आजादी की लड़ाई के दिनों में कश्मीरी आवाम शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की प्रगतिशील और आधुनिक विचारधारा से प्रभावित रही. अलग पाकिस्तान के लिए मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में आंदोलन को अविभाजित भारत के विभिन्न हिस्सों में खासा समर्थन मिला, लेकिन उन इलाकों में कश्मीर नहीं था. बंटवारे के बाद कश्मीर भारत के साथ आया, तो उसका बड़ा श्रेय शेख अब्दुल्ला और उनकी नेशनल कांफ्रेंस को जाना चाहिए. शेख का झुकाव भारत की तरफ हुआ, तो उसकी वजह स्वतंत्रता आंदोलन की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा थी. यही विचारधारा हमारे आधुनिक संविधान में व्यक्त हुई, जिसमें आजाद भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लिया गया. जवाहरलाल नेहरू के हाथ में नेतृत्व होने से कश्मीरियों के लिए इस संकल्प पर यकीन करना और आसान हुआ.

Indien Kaschmir Auseinandersetzungen in Srinagar Paramilitär sichert
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

कश्मीर के संदर्भ में उसके बाद के घटनाक्रम दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण हैं. दरअसल, आज कश्मीर जिस हाल में है, उसका दोष उन घटनाओं पर ही जाता है. बहरहाल, उन घटनाक्रमों की चर्चा अथवा उनके लिए कौन जिम्मेदार था- यह लेख का विषय नहीं है. उससे संबंधित प्रासंगिक पहलू सिर्फ यह है कि मुस्लिम बहुल कश्मीर धर्मनिरपेक्ष भारत का हिस्सा बना. इससे जुड़ी अपेक्षाएं साकार हुई होतीं, तो वहां सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में एक चरमपंथी की मौत पर आज जैसी अशांति नहीं फैलती. उस चरमपंथी के जनाजे में हजारों की भीड़ नहीं उमड़ती. मगर कश्मीर की आज यही कड़वी हकीकत है. 1990 और 2010 में भी कुछ ऐसे हालात पैदा हुए थे. तब भी भारतीय राज्य वहां सख्ती से पेश आया था. मगर तब भारतीय राज्य की चर्चाओं में राजनीतिक संवाद और समाधान की सोच भी रहती थी. आज ऐसा कुछ सुनाई नहीं देता. अगर ऐसी बात कही भी जाए, तो उसका वहां असर होने की गुंजाइश बहुत कम है. क्यों?

इसका जवाब भी मुजफ्फर वानी के इंटरव्यू से मिल सकता है. यह पूछने पर कि बुरहान का मकसद क्या है, उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान से आजादी. क्यों? इसका कारण बताया कि हिंदुस्तान में बीफ खाने पर रोक लगती है, पशु ले जाने वाले ट्रक ड्राइवरों को मार दिया जाता है. गौरतलब है कि उन्होंने अतीत की शिकायतों का जिक्र नहीं किया. संकेत साफ है. इस दौर में कश्मीरी अलगाववादी इस पूरी समस्या को ‘हिंदू बनाम मुस्लिम' के रूप में देखते हैं- अथवा इसी रूप में पेश करना चाहते हैँ. संभवतः इसलिए कि आज ऐसा करना अधिक आसान है. जब बाकी भारत में बहुसंख्यक वर्चस्व की नीतियां खुलेआम प्रचलन में हों- आधिकारिक रूप से भारत की हिंदू पहचान को मान्यता दी जा रही हो- तब ऐसी कोशिशों को स्वतः तर्क मिल जाता है.

Kaschmir Ausgangssperre in Srinagar
तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसे तर्क मजबूत हुए- एक तरफ हिंदुत्व और दूसरी तरफ इस्लामी रूझान आगे बढ़े- तो कश्मीर की अशांति का आधुनिक मानव-अधिकारों की धारणा के अनुरूप कोई लोकतांत्रिक हल निकालना कठिन होता जाएगा. इस हल का आधार स्वतंत्रता और संप्रभुता की सिर्फ वह समझ हो सकती है, जिस पर हमारा संविधान आधारित है. इस संदर्भ में यह प्रकरण उल्लेखनीय है कि नगा बगावत भड़कने से पहले जब नगा प्रतिनिधिमंडल जवाहरलाल नेहरू से मिला और नगालैंड की आजादी की मांग की, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था कि नए भारत में हर नगा, बल्कि हर नागरिक उतना आजाद है, जितना आजाद मैं हूं. इस कथन का संदर्भ भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार हैं. ये अधिकार नागरिकों की मूलभूत स्वतंत्रता एवं सबसे न्याय की संवैधानिक गारंटी करते हैं. भारतीय राज्य-व्यवस्था इन्हें जमीन पर उतारने की दिशा में बढ़ती दिखे, तो वही भारत की एकता और अखंडता की सबसे बड़ी गारंटी होगी. यहां इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस समझ के तहत संप्रभुता नागरिकों में निहित है. उनकी स्वतंत्रता पर कोई असंवैधानिक प्रतिबंध इस संप्रभुता का उल्लंघन है.

Iran UGC Srinagar
तस्वीर: Mohammadreza Davari

विचारणीय बिंदु है कि क्या महजब आधारित किसी राजनीतिक विचारधारा के तहत इस अर्थ में नागरिकों की स्वतंत्रता की कल्पना हो सकती है? मुद्दा है कि अगर बुरहान वानी का संगठन हिजबुल मुजाहिदीन कामयाब हो जाए, तो क्या उससे हर कश्मीरी को वो मूलभूत स्वतंत्रताएं एवं मानव अधिकार मिलेंगे, जिनके बिना आधुनिक लोकतंत्र की कल्पना नहीं हो सकती. हिंदू राष्ट्र या इस्लामी व्यवस्था में महिलाओं और अल्पसंख्यकों का क्या दर्जा होगा? क्या वैसी कोई व्यवस्था वांछित हो सकती है? इसीलिए अगर बुरहान वानी आज के कश्मीरी आंदोलन का चेहरा है, तो उस लड़ाई को नैतिक या किसी अन्य तरह का समर्थन देने से पहले उपरोक्त प्रश्नों पर जरूर सोचा जाना चाहिए. सिर्फ इसलिए कि बुरहान ने बंदूक उठाई और मारा गया, उसे क्रांतिकारी या न्याय का योद्धा नहीं माना जाना चाहिए. लेकिन उसकी धर्मांधता की आलोचना का हक उन लोगों को नहीं हो सकता, जो खुद भारतीय राष्ट्र को एक धर्म आधारित पहचान देना चाहते हैँ. दरअसल, सोच की ये दोनों धाराएं एक-दूसरे को बल प्रदान करती हैं.

Iran UGC Srinagar
तस्वीर: Mohammadreza Davari

जब तक ये धाराएं शक्तिशाली हैं, कश्मीर मसले का कोई लोकतांत्रिक हल मुश्किल है. ऐसे समाधान की आशा दक्षिण एशिया- खासकर भारत और पाकिस्तान (जिनमें कश्मीर के दोनों भाग स्थित हैं)- में आधुनिक, प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक शक्तियों के निर्णायक रूप से मजबूत होने से जुड़ी हुई है. गुजरे 69 वर्षों में इसीलिए यह हल नहीं निकल सका, क्योंकि इसीलिए की कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई. इस बीच कश्मीर को अशांति के दौर से निकालने का एक व्यावहारिक खाका सामने आया था, जिसे मनमोहन-मुशर्रफ़ फॉर्मूले के रूप में जाना गया. यह फॉर्मूला इस समझ पर आधारित था कि दक्षिण एशिया में सीमाएं फिर से नहीं खीची जा सकतीं, लेकिन उन्हें अप्रासंगिक बनाया जा सकता है. इस फॉर्मूले के प्रमुख बिंदु थे- नियंत्रण रेखा को अप्रासंगिक कर दोनों तरफ के कश्मीरियों को आने-जाने की आजादी देना, दोनों तरफ कश्मीर को सैन्य उपस्थिति से मुक्त करना तथा पूरे कश्मीर की सुरक्षा की साझा जिम्मेदारी भारत एवं पाकिस्तान द्वारा स्वीकार करना. ऐसा हो, तो एक नई शुरुआत संभव है. मगर 2006-07 में मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ की सरकारों के बीच इस पर सहमति बनने के बावजूद यह फॉर्मूला लागू नहीं हो सका, तो उससे यही जाहिर होता है कि ऐसा होने की वस्तुगत स्थितियां तब मौजूद नहीं थीं. उसके बाद घटनाएं और विपरीत दिशा में गई हैँ. इस पृष्ठभूमि में कश्मीर मसले के फ़ौरी और दीर्घकालिक- दोनों तरह के हल की आशाएं फिलहाल धूमिल हैं.

सत्येंद्र रंजन (वरिष्ठ पत्रकार)