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'भूरे' भारतीय 'काले' अफ्रीकी से बेहतर कैसे

ऋतिका पाण्डेय२७ मई २०१६

औपनिवेशिक शासन की साझा ऐतिहासिक डोर से जुड़े भारत और अफ्रीका को तो दोनों समाजों में व्याप्त संघर्षों, गरीबी और विकास की दौड़ में आने वाली एक सी रुकावटों के चलते एक दूसरे को और समझना चाहिए.

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Barbies
तस्वीर: picture-alliance

त्वचा के रंग के आधार पर अगर नीली आंखों और हल्के रंग वाले पश्चिमी देशों को मानक मानने लगे, तो हम भारतीय हुए भूरे, चीन और कोरिया जैसे अन्य एशियाई देशों के लोग पीले और अफ्रीका के लोग हुए काले. बात अगर सिर्फ विकास के क्रम में आई विविधताओं को समझने तक हो तो क्या कहने, लेकिन यही रंग अगर आंखों के साथ साथ दिल और दिमाग पर धुंधलका कर दें, तो इस पर चिंता और चर्चा करना जरूरी है.

भारत में राष्ट्रपिता के रूप में याद किए जाने वाले महात्मा गांधी ने रंगभेद के खिलाफ अपना संघर्ष दक्षिण अफ्रीका से शुरू किया. फिर उसी धरती पर अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला ने गांधी की विरासत को आगे बढ़ाया. 1990 में उन्हें भारत रत्न के सम्मान से नवाजा गया, जो कि आजाद भारत में भारतीय महाद्वीप के बाहर के किसी व्यक्ति को दिया गया पहला सर्वोच्च नागरिक सम्मान था.

औपनिवेशिक दमन के शिकार वे भी थे और हम भी. यूरोपीय और ब्रितानी राज की गुलामी अफ्रीकी देशों ने झेली, तो करीब 200 सालों तक भारत ने भी. भारत लंबे संघर्ष के बाद ब्रिटिश शासन से 1947 में मुक्त हुआ तो 19वीं सदी के अंत में गुलाम हुआ नाइजीरिया द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के परिणास्वरूप 1960 में जाकर आजाद हुआ. इतने लंबे औपनिवेशिक काल की गहरी छाप एशिया और अफ्रीकी महाद्वीपों के इन तमाम देशों में विदेशी शासकों के चले जाने के बाद भी किसी ना किसी रूप में आज तक दिखती है.

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ऋतिका पाण्डेय, डॉयचे वेलेतस्वीर: DW/P. Henriksen

उन्नीसवीं सदी में 'कूली' कहलाने वाले भारतीय मजदूर दक्षिण अफ्रीका पहुंचने लगे थे. तब वहां के अश्वेतों के साथ अपमानजनक बर्ताव होता था. भारतीयों और अश्वेतों दोनों ने समान तरह के अन्याय सहे. 20वीं सदी में अश्वेतों के मसीहा माने जाने वाले नेल्सन मंडेला ने इसके खिलाफ बुलंद आवाज उठाई, शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद खत्म हुआ और 1994 से बिना किसी भेद के सबके लिए समान मताधिकार लागू हुआ. साझा अनुभवों के बावजूद आजादी के इतने दशकों बाद अफ्रीकी समाज के लोगों के साथ भारत में ऐसा बर्ताव क्यों?

बीते सालों में भारत के अलग अलग हिस्सों में ऐसी अनेक घटनाएं हुई जिनमें किसी आदिवासी या दलित महिला को या किसी ऐसी लड़की को जिसका दूसरी जाति के पुरुष के साथ प्रेमसंबंध हो, सार्वजनिक रूप से नंगा करके सड़कों पर दौड़ाया गया, पीटा गया या उनका जुलूस निकाला गया. जब ऐसे कुछ मामलों में पीड़ित अश्वेत हो, तो इसके साथ नस्ली भेदभाव और रंगभेद का पहलू भी जुड़ जाता है. लेकिन कड़वा सच तो यह है कि भारतीय समाज आपस में ही कई तरह के भेदभाव बरतता है. लिंग, धर्म, जाति और आर्थिक अंतरों के आधार पर भारत एक अत्यंत खंडित समाज दिखता है. इतनी विभिन्नताओं वाले भारत को केवल एक संवेदना ही एक देश के सूत्र में बांध सकती है. नस्ली हिंसा की घटनाएं उस संवेदना के मरने की ओर इशारा करती हैं.

अफ्रीकी महाद्वीप के कई देश आज आतंकवाद समेत तमाम आंतरिक जातीय मतभेदों से घिरे हैं. अफ्रीका को प्राकृतिक संसाधनों के भंडार के रूप में देखा जाता है और इसी कारण दुनिया के कई देशों के उससे आर्थिक स्वार्थ जुड़े हैं. लेकिन भारत और अफ्रीका केवल आर्थिक साझेदार ही नहीं उससे कहीं बढ़कर होने चाहिए. भारत विविधता में एकता के अपने विचार के साथ देश की अलग अलग नस्लों, भाषाओं और संस्कृतियां को समेटे हुए है. आज बात अफ्रीकी मूल के लोगों की है लेकिन समय समय पर पूर्वोत्तर भारत के लोगों की शक्ल उत्तर से लोगों से अलग होने के कारण उन पर भी नस्ली टिप्पणियां और हिंसा की खबरें आती हैं.

नस्ली वजहों से होने वाले बलात्कार या हत्याओं तक के बारे में अधिक चर्चा नहीं होती है. जरूरत है कि इन अपराधों से सख्ती से निपटा जाए और नस्ली हिंसा के प्रति शून्य सहनशीलता का रवैया अपनाया जाए. जाति और रंगभेद विरोधी विचारधारा के व्यापक प्रचार-प्रसार और समाज सुधार के आंदोलन को फिर से जिंदा करने की जरूरत शिद्दत से महसूस होती है. इतना तो साफ है कि 21वीं सदी में ऐसी नस्ली हिंसा की घटनाओं से भारत समेत अमेरिका जैसे देशों की छवि खराब होती है. लेकिन महात्मा गांधी के देश में हो रही ऐसी घटनाएं पूरी दुनिया को काफी अचम्भे में डालती है और भारत के बाहर रह रहे भारतीयों को शर्मशार करती हैं.

ब्लॉग: ऋतिका पाण्डेय