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तलाक पर बंटता मुस्लिम समाज

प्रभाकर, कोलकाता१९ अप्रैल २०१६

ट्रिपल तलाक पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन इसके समर्थन में हैं तो महिलाएं इसे पक्षपातपूर्ण मानती हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Solanki

क्या महज तीन बार तलाक शब्द के उच्चारण के साथ ही जीवनभर का बंधन टूट जाता है? क्या इस्लाम में महिलाओं का दर्जा दोयम है? शायद इसीलिए पुरुष को तो मनमानी का अधिकार है और महिलाओं का जीवन और भविष्य उनकी जुबान से तीन बार निकलने वाले इस कड़वे शब्द पर ही निर्भर है. जब सऊदी अरब और पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों में इस पर पाबंदी लगा दी गई है तो भारत जैसे धर्मनिरपपेक्ष देश में इसे जारी रखने की क्या तुक है?

इस मुद्दे पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद पूरे देश के साथ पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर इलाके में भी उक्त सवालों पर बहस शुरू हो गई है. इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज बंटता नजर आ रहा है. ज्यादातर मौलाना, उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन तीन बार बोल कर तलाक देने की प्रथा को जारी रखने के पक्ष में हैं तो महिलाएं और उनके हितों के लिए काम करने वाले संगठन इस प्रथा को पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इसके खात्मे के पक्ष में.

यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर के बाद मुस्लिमों की आबादी के मामले में असम और पश्चिम बंगाल का स्थान आता है. असम की आबादी में लगभग 34 फीसदी मुस्लिम हैं तो बंगाल में 30 फीसदी. एक गैर-सरकारी संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ओर से हाल में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इस तबके की 92.1 फीसदी महिलाएं तीन बार बोल कर तलाक की इस प्रथा पर पाबंदी के पक्ष में हैं. देश के 10 राज्यों में किए गए इस अध्ययन में शामिल ज्यादातर महिलाएं आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े तबके की थी. उनमें से लगभग आधी महिलाओं का विवाह 18 साल की उम्र से पहले हो गया था और उनको घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा था. इस अध्ययन में महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल की महिलाएं भी शामिल थीं. अब तो ईमेल, स्काईप, मोबाइल मैसेज और व्हाट्सऐप जैसे सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए भी कोई भी पति तीन बार तलाक लिख कर अपनी पत्नी से नाता तोड़ सकता है.

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तस्वीर: UNI

मुस्लिम महिलाओं के हक में आवाज में उठाने वाली असम की सादिया कहती है, "इस प्रथा को बंद कर एक नया कानून बनाना चाहिए जिसमें महिलाओं को तलाक की स्थिति में गुजारा भत्ता देने का प्रावधान हो." वह कहती हैं कि आधुनिकता के इस दौर में इस दकियानुसी प्रथा को जारी रखना बेमतलब है. लेकिन एक उलेमा मौलाना हबीबुल्लाह कहते हैं, "हम कुरान में लिखी बातों की अनदेखी नहीं कर सकते. सदियों से चली आ रही परंपरा को कोई अदालत नहीं बदल सकती. हम इसके खिलाफ आंदोलन करेंगे."

बंगाल में एक महिला मुख्यमंत्री के सत्ता में होने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं की हालत में कोई सुधार नहीं आया है. वोट बैंक की राजनीति के तहत ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद इमामों को ढाई हजार रुपए मासिक भत्ता देने का एलान किया था. इससे महिलाओं में भारी नाराजगी है. रोकैया नारी उन्नयन समिति की संस्थापक-निदेशक खदीजा बानू कहती हैं, "ममता के इस रवैए से मुस्लिम महिलाओं में भारी हताशा है." वह कहती हैं, "ममता के सत्ता में आने पर मुस्लिम महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उनको लगा था कि अब शायद उनके दिन बहुरेंगे. लेकिन ममता भी दूसरे नेताओं की तरह ही निकलीं."

मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर जादवपुर विश्वविद्यालय में शोध करने वाली हसनारा खातून कहती हैं, "ममता के सत्ता में आने के बाद हालात बदल गए हैं. अब उनको हिजाब पहन कर नमाज पढ़ते देख कर महिलाओं के चेहरों पर उदासी घिर जाती है.'

60 साल की रुखसार बेगम को उनके पति ने मामूली-सी बात पर तीस साल पहले तलाक दे दिया था. वह कहती हैं, "यह प्रथा बंद होनी चाहिए ताकि दूसरी महिलाओं को उस पीड़ा व हालात से नहीं गुजरना पड़े जिससे मैं गुजरी हूं." हसनारा कहती है, "राजनीतिक दलों के पास मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को हल करने की न तो इच्छाशक्ति है और न ही इसमें कोई दिलचस्पी. किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करना ही उनका एकमात्र मकसद है. इसलिए उनसे किसी तरह की मदद की आस लगाना ही बेकार है."

कोलकाता नगर निगम में सीपीएम की पूर्व पार्षद फरजाना चौधरी कहती हैं कि ममता समेत तमाम दलों पर मुस्लिम तबके के लुभाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन इसमें महिलाओं का कहीं जिक्र नहीं होता. वह कहती हैं, "कोलकाता जैसे महानगर में भी ज्यादातर मुस्लिम परिवारों में महिलाओं की न तो कोई अहमियत है और न ही कोई फैसला लेने का अधिकार. वे वोट भी उसी पार्टी को देती हैं जिसे पति कहे." मुस्लिम महिलाओं के हित में एक संगठन चलाने वाली फरजाना का कहना है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके हक की आवाज नहीं उठाती. इसकी वजह यह है कि इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हासिल होता.

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि तमाम राजनीतिक दल अल्पसंख्यकों को लुभाने के नाम पर महज मौलवियों को खुश करने का प्रयास करते हैं. इसकी वजह है कि पूरे समाज की भावी रणनीति मौलवियों के फतवे से ही तय होती है. रुखसार याद दिलाती है कि प्रगतिशील समझे जाने वाले बंगाल में सीपीएम जैसी पार्टी की अगुवाई वाली सरकार के सत्ता में होने के बावजूद तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिका को रातोंरात कोलकाता छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था. सरकार ने यह सारी कवायद महज मौलवियों को खुश करने के लिए ही की थी. इससे राज्य में मुस्लिम महिलाओं की हालात का अनुमान लगाया जा सकता है. मुस्लिम महिलाओं के लिए हालात अब तक जस के तस हैं.