1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

लिव इन रिलेशनशिप: क्या कहता है कानून?

निर्मल यादव११ अप्रैल २०१६

समाज की बदलती जरूरतों को कानून की सहम‍ति मिलना सकारात्मक तो है लेकिन लिव इन रिलेशनशिप के मामले में संसद अभी भी मौन है. हर फैसला सियासी चश्मे से देखकर ही लेने की मजबूरी के चलते संसद से इस मसले पर जनमत का इंतजार है.

https://p.dw.com/p/1IT5V
तस्वीर: Colourbox/Pressmaster

महानगरीय संस्कृति कहें या सिमटती जरूरतों की मजबूरी, भारत में लिव इन का चलन शहरों में बढ़ा जरूर है लेकिन समाज ने अभी इस चलन को दबी जुबान से ही स्वीकार किया है. वहीं कानून की इबारत को ब्रह्मवाक्य मानने वाली अदालतों ने लिव इन रिलेशनशिप को महिलाओं के कानूनी हक की खातिर सहर्ष मगर सशर्त स्वीकार्यता दी हुई है.

बीते एक दशक में बिना शादी किए हमराह बनने वाले जोड़ों की बढ़ती तादाद ने अदालतों को समय की मांग के अनुरूप लिव इन रिलेशनशिप को हकीकत मानने पर विवश कर दिया है. तमाम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले इसकी नजीर बनकर लिव इनको कानूनी अमलीजामा पहना चुके हैं. यह बात दीगर है कि समाज के स्तर पर अभी भी बहस मुबाहसों का दौर जारी है मगर संसद फिलहाल मौन है.

आखिरी बार साल 2008 में इस मुद्दे पर संसद में बहस हुई थी. तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने संगदिली और संग गुजर-बसर को कानूनी मान्यता देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि समाज का एक बड़ा तबका अभी भारतीय मूल्यों की खातिर इस बदलाव के लिए तैयार नहीं है. संसद के इस रुख से विचलित हुए बिना देश की अदालतों ने मौजूदा कानून के तहत ही इस बदलाव को कानूनी मान्यता दे दी.

पत्नी और रखैल जैसे शब्दों से परे

पिछले साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ रह रहे जोड़े को पति पत्नी का दर्जा देते हुए संपत्ति में भी बराबरी का हक देने की बात कही. इस मामले में मजेदार बात यह रही कि पीड़ित पक्षकार एक बुजुर्ग महिला थी, जिसे उसके बुजुर्ग हमराही के पोतों ने वैध शादी नहीं होने के आधार पर परिवार की सदस्य मानने से इंकार कर बुजुर्ग की संपत्ति में हकदार नहीं माना था.

जस्टिस एमवाई इकबाल और जस्टिस अमिताव रॉय की खंडपीठ ने बुजुर्ग के पोतों की इस दलील को नहीं माना कि उनके दादा ने याचिकाकर्ता महिला को बिना शादी किए अपने साथ रखा हुआ था. अदालत ने कहा कि किसी महिला का 20 साल किसी के साथ रहना उसे पत्नी का दर्जा देने के लिए पुख्ता आधार है.

ऐसे में पर्सनल लॉ के मुताबिक विधि विधान से शादी करने की बाध्यता को थोपना जरूरी नहीं है. अदालत ने बदलते सामाजिक परिवेश के मद्देनजर ''रखैल'' जैसे शब्दों को कानून की किताबों से हटाने की जरूरत पर बल देते हुए उक्त महिला को पत्नी के समतुल्य बताकर परिवार की संपत्ति में हकदार करार दिया.

महज एक कानून बना सहारा

इतना ही नहीं, इसके पहले साल 2014 और 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दो फैसलों में लि‍व इन रिलेशनशिप में जन्मे बच्चे को संतान का दर्जा देते हुए इस तरह के रिश्ते को कानूनी मान्यता देने संबंधी दिशानिर्देश भी जारी किए. इसमें अदालत ने साथ रहने की समयावधि और महिला एवं संतान के विधिक अधिकारों की स्पष्ट लक्ष्मणरेखा खींच दी.

इस पूरी कवायद की राह में हिंदू विवाह कानून 1955 जैसे अन्य पर्सनल लॉ कोर्ट की राह के रोड़े बन रहे थे. ऐसे में साल 2005 में महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण देने वाले कानून को उच्च अदालतों ने हथियार बनाया. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने अपने हर फैसले में लंबे समय से साथ रह रहे जोड़े के रिश्ते को "'महिलाओं के घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून 2005" की धारा 2एफ में परिभाषित ''घरेलू रिश्ते'' के तहत स्वीकार्यता प्रदान की. इसी को आधार बनाकर अब ऐसे रिश्ते से जुड़ी महिला और उसकी संतान को संपत्ति एवं अन्य कानूनी अधिकार का हकदार बताया.

पश्चिम के लिए बना नजीर

भारत में लिव इन रिलेशनशिप पर कानून बनाने में विधायिका का रुख भले ही लचर हो लेकिन न्यायपालिका ने इस मामले में पश्चिमी देशों के लिए नजीर पेश की है. इसमें उम्रदराज जोड़ों के शादी से इतर हमराही के रिश्ते को परिभाषित करना उल्लेखनीय है. इस दिशा में कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी का मामला ऐतिहासिक बन गया है.

उनकी लिव इन रिलेशनशिप की संतान रोहित शेखर तिवारी ने एक दशक की कानूनी लड़ाई के बाद अदालत से तिवारी को अपना पिता कहलाने का कानूनी हक हासिल किया. देर सवेर तिवारी ने भी अब अपनी साथी और संतान को पत्नी एवं बेटे के रूप में स्वीकार कर ऐसे रिश्तों को लेकर समाज में सकारात्मकता का संदेश दिया है.

चुनौती बरकरार

हालांकि लिव इन रिलेशनशिप के दुरुपयोग के मामले भी कम नहीं हैं. महानगरों और छोटे शहरों तक में लिव इन रिलेशनशिप के नाम पर महिलाओं द्वारा पुरुषों के खिलाफ शादी का झांसा देकर बलात्कार करने की शिकायतों में बढ़ोतरी हुई है. हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐसे मामलों में पुलिस को बलात्कार के बजाय विश्वास भंग (‍क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट) का मुकदमा दर्ज कर जांच करने का आदेश दिया है, जिससे लिव इन रिलेशनशिप में अदालतों द्वारा दी गई व्यवस्था के दुरुपयोग को रोका जा सके.

सात दशक पहले भारत के संविधान को स्वीकार करते समय संविधान सभा ने समय की मांग के अनुरूप कानून को बदलने की जरूरत के प्रति आगाह किया था. संविधान निर्माताओं ने साफ ताकीद की थी कि जिंदा कौमें कभी सोती नहीं है, इसलिए संसद और सरकार अगर कानून में समय की मांग के मुताबिक बदलाव नहीं करेंगी तो समाज बदलाव के रास्ते खुद तलाश लेगा. लिव इन रिलेशनशिप के मामले में अतीत में कही गई यह बात खुद को दुहराती दिख रही है.

आपका लिव इन रिलेशनशिप के बारे में क्या कहना है? साझा करें अपनी राय, नीचे दी गयी जगह में.