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80 फीसदी इंजीनियर अयोग्य

विश्वरत्न श्रीवास्तव, मुंबई२९ जनवरी २०१६

ज्यादातर भारतीय अपने बच्चों को इंजीनियर डॉक्टर बनाना चाहते हैं. लेकिन देश में जो इंजीनियर बनाने के संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं, वह छात्रों को योग्य इंजीनियर नहीं बना पा रहे हैं.

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तस्वीर: Ina Ross

विदेशों में भारतीय इंजीनियरों की मांग होने की खबरें जब तब आती रहती हैं. खासतौर पर सुंदर पिचाई जैसे बहुत से प्रतिभाशाली भारतीय इंजीनियरों ने विदेशों में अपनी पहचान बनाई है. इसके बावजूद सच्चाई यही है कि भारतीय संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश छात्र नौकरी पाने के लिए जरूरी पात्रता नहीं रखते. हाल ही में हुए एक अध्ययन में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 80 फीसदी छात्रों में रोजगार की योग्यता ही नहीं है.

कुशल इंजीनियरों का अभाव

एस्पाइरिंग माइंड्स की नेशनल इम्प्लायबिलिटी रिपोर्ट के अनुसार 80 फीसदी इंजीनियर रोजगार के काबिल नहीं है. रिपोर्ट में 650 से अधिक इंजीनियरिंग कॉलेजों के 1,50,000 इंजीनियरिंग छात्रों का अध्ययन किया गया है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इसके लिए शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण की गुणवत्ता में सुधार लाने की जरूरत है ताकि वे श्रम बाजार की जरूरतों के हिसाब से काबिल हो सके.

रिपोर्ट में दिल्ली के संस्थानों को योग्य इंजीनियर देने में बेहतर बताया गया है. इसमें दूसरा स्थान बेंगलूरू का है और इसके बाद मुंबई और पुणे के कॉलेजों का नंबर आता है. वैसे रिपोर्ट के अनुसार छोटे शहरों से भी रोजगार की योग्यता रखने वाले इंजीनियर निकल रहे हैं. राज्यों की बात करें तो बिहार-झारखंड, दिल्ली, पंजाब और उत्तराखंड की स्थिति थोड़ी ठीक है. लेकिन तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है. यहां के कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की रोजगार पात्रता बहुत ही कमजोर होती है. रोजगार योग्यता के लिहाज से लड़कों और लड़कियों में बीच ज्यादा अंतर नहीं है. वहीं सॉफ्टवेर इंजीनियरिंग या आईटी से डिग्री लेने वाले छात्र दूसरे अन्य ब्रांचों के मुकाबले थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं.

अंग्रेजी में भी हाथ तंग

देश में अंग्रेजी की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद ज्यादातर इंजीनियरिंग छात्रों के लिए यह भाषा ‘कमजोर कड़ी' साबित हो रही है. एस्पाइरिंग माइंड्स की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 67 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट में अंग्रेजी भाषा कौशल की कमी है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी पाने लायक अंग्रेजी न जानने वालों की संख्या और भी ज्यादा है.

कमजोर अंग्रेजी का खामियाजा विकास कुमार को भी भुगतना पड़ा है. बीटेक करने के बाद रोजगार के लिए मुंबई आये विकास संतोषजनक पैकेज नहीं मिलने से निराश हैं और अब जॉब छोड़कर एमबीए करने या व्यापार शुरू करने की योजना बना रहे हैं. इस समस्या की ओर संकेत करते हुए मुंबई में एचआर कंसलटेंट हितेश दलाल कहते हैं, “ज्यादातर इंजीनियरिंग ग्रेजुएट में व्यावहारिक ज्ञान और कम्युनिकेशन स्किल की कमी होती है.” उनके अनुसार जॉब पाने में मुंबई-पुणे के छात्रों को उतनी समस्याएं नहीं आती जितनी दूसरे शहरों से पढ़े हुए छात्रों को होती हैं. हितेश बताते हैं कि बड़ी कंपनियां अंग्रेजी भाषा ज्ञान को महत्व देती हैं.

गुणवत्ता बढ़ाने की जरूरत

देश में करीब साढ़े तीन हजार इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनसे हर साल लगभग पंद्रह लाख ग्रेजुएट नौकरी बाजार में पहुंचते हैं. सीडैक पुणे के छात्र रहे और अब एक कंपनी के सीईओ राजीव कुमार कहते हैं कि सरकार के पास इतने बड़े पैमाने पर निकल रहे छात्रों के लिए कोई प्लानिंग नहीं है. जरूरत से ज्यादा कॉलेज खोलना और केवल डिग्री देने के कारण छात्र बेरोजगार हो रहे हैं. उनका कहना है, “बीटेक की डिग्री वाले चपरासी या क्लर्क बनने को तैयार है इसका मतलब ही है उनके पास सिर्फ डिग्री है.” हालांकि राजीव का मानना हैं कि बड़े और प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्रों को आज भी जॉब की कोई समस्या नहीं आती.

इंजीनियरिंग कॉलेज के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ हरेन्द्र कुमार तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता में आयी गिरावट से दुखी हैं. डिग्री के साथ व्यावहारिक ज्ञान और प्रशिक्षण की जरूरत को रेखांकित करते हुए डॉ हरेन्द्र कुमार का मानना है, “कॉलेजों की बाढ़ को रोककर ही छात्रों को रोजगार योग्य इंजीनियर में तब्दील किया जा सकता है.” इंजीनियरिंग ग्रेजुएट की बेकारी से सरकार अंजान नहीं है. इंजीनियरिंग ग्रेजुएट की बेकारी को लेकर काफी पहले से खबरें आ रही हैं. विशेषज्ञों ने इस चिंताजनक स्थिति से निपटने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र को सुझाव दिया है कि सर्वे कराकर जितने इंजीनियर की जरूरत है, कॉलेजों में उसी के हिसाब से सीटें आवंटित की जाए. जरूरत से ज्यादा खुले कॉलेजों को बंद किये जाने से भी परहेज नहीं करना चाहिए. एआईसीटीई (ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) ने भी देशभर में बेरोजगार इंजीनियरों की बढ़ रही संख्या को देखते हुए इंजीनियरिंग की सीटों को कम करने की योजना बनाई है. वैसे अब छात्रों में भी इंजीनियरिंग के प्रति मोह लगातार भंग हो रहा है. पिछले 2-3 सालों से देश के कई इंजीनियरिंग कॉलेजों में सीटें नहीं भर पा रही हैं.