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"हिन्दी साहित्य का अच्छा दौर"

१३ सितम्बर २०१४

विष्णु खरे प्रसिद्ध कवि के साथ पैने आलोचक, अनुवादक और प्रतिबद्ध पत्रकार हैं. फिनलैंड और एस्टोनिया के राष्ट्रीय महाकाव्यों के अनुवाद के लिए उन्हें वहां की सरकारें ‘सर’ उपाधि के समतुल्य नागरिक सम्मान प्रदान कर चुकी हैं.

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Vishnu Khare
तस्वीर: DW/K. Kumar

खरे ने जर्मन भाषा के महान कवि गोयथे और गुंटर ग्रास की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. हिन्दी साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की 50वीं पुण्यतिथि के दौरान उनसे की गई बातचीत के कुछ अंशः

इस समय हिन्दी साहित्य की, विशेषकर कविता की, क्या स्थिति है?

हिन्दी कविता को लेकर मैं लगातार आशावादी होता गया हूं. इसका कारण यह है कि यदि आज हिन्दी में 50 खराब कवि हैं तो कम से कम 60 या 70 अच्छे कवि भी हैं. अगर आज हिन्दी में 84 वर्ष के कुंवर नारायण हैं तो 27-28 वर्ष के मनोज कुमार झा भी हैं. इस समय हिन्दी का एक भरा पूरा संसार है जिसमें पांच पीढ़ियां एक साठ सक्रिय हैं. इंटरनेट, ई पत्रिकाओं और ब्लॉग ने हिन्दी कविता के प्रचार प्रसार को बहुत बढ़ाया है. अनेक ब्लॉगर हैं जो अपनी कविताएं या दूसरे कवियों की कविताएं या विश्व कविता से अनुवाद छाप रहे हैं. इस समय हिन्दी की हजारों कविताएं और कविता कोश इंटरनेट पर उपलब्ध हैं. पहले ऐसा कहां था? आजकल कहानियां और आलोचनात्मक लेख भी सीधे ब्लॉग पर छपते हैं, पत्रिकाओं में नहीं जाते. इस समय मैं यूरोपीय कविता का - या कहें कि विश्व कविता का भी जो स्तर देखता हूं, उसे देखकर मुझे लगता है कि हिन्दी कविता अगर उससे आगे नहीं है तो पीछे भी नहीं है.

हिन्दी साहित्य को यहां तक लाने में मुक्तिबोध का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. उनके निधन को 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं.

मुक्तिबोध की मृत्यु 1964 में हुई लेकिन तब तक उन्हें बहुत कम लोग जानते थे. उनका कुछ ज्यादा छपा ही नहीं था, और जो कुछ छपा था वह अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक' में छपा था जो 1964 तक आते आते बहुत पुराना पड़ चुका था. वह विवादास्पद भी था और उसमें मुक्तिबोध समेत सभी कवियों की बहुत कम कविताएं थीं. जब मुक्तिबोध कोमा में थे और मरणासन्न थे, तब अचानक उन्हें डिस्कवर किया गया. और यह काम किया श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी और शमशेर बहादुर सिंह ने. तभी उनकी पहले कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है' का प्रकाशन हुआ और वह भी बहुत सम्मानित संस्था भारतीय ज्ञानपीठ ने किया. उसके बाद ‘कल्पना' पत्रिका ने उनकी लंबी कविता ‘अंधेरे में' प्रकाशित की. और अचानक 46-47 की उम्र में अपनी मृत्यु के समय मुक्तिबोध बहुत प्रसिद्ध हो गए. कुछ ही समय पहले जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी, और मुक्तिबोध भी कुल मिला कर नेहरूवियन टेंपर के कवि थे. तो सितंबर 1964 में अपनी मृत्यु के बाद अचानक मुक्तिबोध एक बहुत बड़े कवि के रूप में उभरे.

उस समय तक रघुवीर सहाय और धूमिल जैसे कवि नहीं उभरे थे. मुक्तिबोध की कविता में जो सामाजिक असंतोष था, क्रांतिधर्मिता थी, लोकजीवन से जुड़ने की बात थी, वह पुरानी प्रगतिशील कविता से बहुत अलग थी और बहुत नई थी.

कहा जा रहा है कि मुक्तिबोध की लोकप्रियता लगातार बढ़ती ही गई है, जो बहुत कम कवियों के साथ हुआ है.

इसमें कोई शक नहीं, लेकिन इसमें मुक्तिबोध का इतना बड़ा हाथ नहीं है जितना इस बात का कि हिन्दी कविता लगातार प्रतिबद्ध होती गयी है. आज हिन्दी के 80 प्रतिशत कवि प्रतिबद्ध वामपंथी हैं, और आज भी उनके गुरु मुक्तिबोध हैं. वामपंथी कविता की थ्योरी उनके यहां सबसे अधिक है. और अब तो मैं देख रहा हूं कि युवा कवि खुल्लमखुल्ला कह रहे हैं कि शायद आलोचक भी मुक्तिबोध सबसे बड़े थे. मैं बहुत पहले से यह कहता आ रहा हूं, और मुझे खुशी है कि अब दूसरे भी ऐसा कहने लगे हैं.

हिन्दी आलोचना की स्थिति क्या रही है पिछले तीन चार दशकों के दौरान?

भई, बहुत निराशाजनक रही है. इसमें भी जो कवि आलोचक हैं वे बाजी मार ले जाते हैं. अकादमिक आलोचना ने आधुनिक कविता को छुआ ही नहीं. रामविलास शर्मा ने ‘निराला' के अलावा उनके आस पास के किसी युवा कवि पर भी नहीं लिखा. मैं मलयज को पहले स्थान पर रखता हूं, उनके बाद विजयदेव नारायण साही को और फिर काफी दूर तीसरे स्थान पर नामवर सिंह को.

आप तो हिन्दी फिल्मों और फिल्म संगीत के मर्मज्ञ हैं. पुराने और आज के फिल्म संगीत की तुलना करते हैं तो कैसा लगता है?

अब मेलोडी तो गायब हो गई है. फिल्म संगीत की ध्वनि ही बदल गयी है. सिंथेटिक साउंड का बोलबाला है, और रिदम हावी है. आजादी के बाद हिन्दी फिल्में और उनका संगीत सच्चे अर्थों में आधुनिक बने थे. यह स्वर्णयुग 1980 का दशक आते आते समाप्त हो गया, और इसकी प्रक्रिया 1970 आते आते शुरू हो गई थी. अब तो लता मंगेशकर एक शब्द आज गाकर दो महीने बाद शेष लाइन गाकर पूरा कर सकती हैं, क्योंकि मल्टी ट्रैक रिकॉर्डिंग होती है.

इंटरव्यूः कुलदीप कुमार

संपादनः अनवर जे अशरफ